Wednesday , December 11 2024

आइए जानते हैं क्या है पूर्णिमा तिथि पर गंगा में स्नान का महत्व-

हमारी संस्कृति अत्यंत वैज्ञानिक, प्रकृति के निकट और प्रायः उत्सवधर्मी है। धार्मिक-आध्यात्मिक साधनों की तत्परता की दृष्टि से माघ मास अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस पवित्र महीने में स्नान, दान और भगवान के नाम संकीर्तन का विशेष महत्व है। पद्म पुराण के उत्तरखंड में माघ मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि अन्य मासों में जो फल कठिन व्रतदान और तपस्या से मिलता है, वह पुण्य फल साधक को माघ मास में स्नान मात्र से ही प्राप्त हो जाता है!

‘व्रर्तैदानैस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरि:।

माघ मज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशव:।।

प्रीयते वासुदेवस्य सर्व पापपनुत्त्ये।

माघस्नानं प्रकुर्वीत स्वर्ग लाभय मानव:।।”

पुराणों में कहा गया है कि माघ मास में किसी भी नदी का जल गंगा जल तुल्य पवित्र और दिव्य हो जाता है। यद्यपि इस महीने की प्रत्येक तिथि पर्व है, किंतु जो लोग किसी कारण मास पर्यंत स्नान न कर सकें, वे तीन दिन अथवा माघी पूर्णिमा के दिन स्नान का संकल्प अवश्य लें। भारत की नदियां मात्र जलस्रोत नहीं, अपितु हमारे सांस्कृतिक संवेगों की प्रवाहिकाएं हैं। नदियों से हमारी अनेक संस्कृति-आध्यात्मिक विधियां और धार्मिक सरोकार मृत्यु के अनंतर भी जुड़े रहते हैं। माघी पूर्णिमा के दिन सकल भगवदीय सत्ता और स्वयं नारायण पृथ्वी लोक की जलराशियों में विशेषकर गंगा जल में वास करते हैं, इसलिए प्रयाग, हरिद्वार, काशी समेत अन्य श्रेष्ठ तीर्थों में देवाधिदेव महादेव और समस्त देवता स्नान के लिए आते हैं।

भारतीय संस्कृति प्रकृति के सूक्ष्म संवेगों से नित्य एकीकृत है। भारत के उद्दीप्त आध्यात्मिक विचारों में नीर अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारी संस्कृति के प्रधान पुरुष, प्रथम पुरुष, आदि पुरुष भगवान नारायण का अस्तित्व भी नीर अर्थात जल से ही है और उनकी सहचरी ‘लक्ष्मी’ भी नीरजा के नाम से जानी जाती हैं अर्थात जल के बिना उनका भी अस्तित्व नहीं है। हमारे अनेक पौराणिक-आध्यात्मिक आख्यान जल और नदियों के संरक्षण एवं उनकी महनीयता का प्रतिपादन करते हैं। पेड़-पौधे, नदियां, झील, जलाशय, कूप आदि का पूजन भी हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। आंवला, कूप, तुलसी, वट आदि के प्रति देवत्व का भाव भारत में ही देख सकते हैं।

सारांशत: माघ पूर्णिमा का पर्व धर्म और पुण्यार्जन के लिए तो है ही, इसमें नदियों की शुचिता, सातत्य और संवर्धन का भी संदेश छिपा है। आज मनुष्य अपनी भौतिकीय समृद्धि और उत्कर्ष के लिए इतना उतावला है कि वह क्षणिक सुख के लिए प्रकृति और पर्यावरण को भी विकृत कर रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति का अधाधुंध दोहन किया जा रहा है। वृक्ष काटे जा रहे हैं। कितने ही पर्वत, सरित-सरोवर आदि अपना अस्तित्व खो रहे हैं। ऐसे में हमें यह समझने की आवश्यकता है कि प्रकृति केंद्रित विकास ही श्रेयस्कर है। भौतिक समृद्धि के लिए पर्यावरण की अनदेखी भयानक सिद्ध होगी। माघ पूर्णिमा के अवसर पर हम न केवल पवित्र गंगाजल में स्नान करें, अपितु जलस्रोतों की शुचिता, सातत्य एवं नदियों की अविरलता और प्रवाहमानता को सुनिश्चित और संरक्षित करने का भी संकल्प लें।

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com