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उत्तराखंड:फलस्वाड़ी में दामाद के रूप में पूजे जाते हैं भगवान श्रीराम

पौड़ी जिले के कोट ब्लॉक के फलस्वाड़ी में लोग भगवान श्रीराम को दामाद के रूप में पूजते हैं। मान्यता है कि माता सीता ने अपने जीवनकाल के अंतिम दिन कोट ब्लॉक के सितोनस्यूं घाटी में बिताए थे। मान्यता है कि इसी घाटी में ही माता सीता धरती में समाई थीं। आज भी यहां लोग मनसार मेले के रूप में राम-सीता और लक्ष्मण को पूजते हैं।

इसके अलावा इसी क्षेत्र में आठवीं सदी का लक्ष्मण सिद्ध मंदिर भी हैं। देवल गांव के लोगों में मान्यता है कि श्रीराम की आज्ञा पर लक्ष्मण माता सीता को वनगमन के लिए सितोनस्यूं घाटी छोड़ने पहुंचे थे। जहां लक्ष्मण ने देवल गांव में विश्राम किया। इसके बाद से यहां पर नियमित रूप से लक्ष्मण को पूजा जाता है।

मान्यता है कि यहां आठवीं और नवीं सदी में शंकराचार्य ने मंदिर का निर्माण किया था, जो चारधाम के मंदिरों की तरह नागर शैली में है। मंदिर के पुजारी वीरेंद्र पांडे बताते हैं कि मंदिर में लक्ष्मण को शेषनाग के रूप में पूजा जाता है। मंदिर से करीब 50 मीटर नीचे एक प्राचीन नौला (बावड़ी) है, जिसे मंदिर का ही रूप दिया गया है।

सीता माता की स्मृति में लगता है मनसार का मेला
इस मंदिर से आज भी लगातार पानी निकलता है। मान्यता है कि इस नौले में आज भी ब्रह्म मुहूर्त में देवी-देवताओं का स्नान होता है। पुजारी ने बताया कि फलस्वाड़ी गांव में माता सीता का मायका है, जबकि कोटसाड़ा गांव को सीता के मामा का घर कहा जाता है। हर साल दीपावली के बाद द्वादश तिथि को यहां सीता माता की स्मृति में मनसार का मेला आयोजित होता है।

देवल के लोगों का कहना है कि पुजारी के सपने में देवी आती हैं और कहती हैं कि मेरी शिला फलां जगह पर है। जब उस जगह की खोदाई होती है तो उस धरती से शिला निकाली जाती हैं। कोट ब्लॉक में आज भी शृद्धालु माता सीता को बबुले (एक जंगली घास) के रूप में पूजते हैं।

एक रात में बने 365 मंदिर

गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि चारधामों में बने मंदिरों समेत 365 मंदिरों को एक ही रात में बनाया गया। मान्यता है कि इन सभी को शंकराचार्य ने बनाया था। मंदिर के पुजारी वीरेंद्र पांडे ने बताया कि लक्ष्मण सिद्ध मंदिर भी उसी में से एक है। मंदिर में विष्णु, शिव, गणेश आदि देवी देवताओं की प्राचीन मूर्तियां हैं।

देवल का लक्ष्मण सिद्ध मंदिर आठवीं से 12वीं सदी के बीच बनाया गया है। मंदिर में प्राचीन मूर्तियां भी हैं। यहां ब्रह्माजी की मूर्ति भी है, जो करीब इतनी ही प्राचीन भी है। यह गढ़वाल मंडल में ब्रह्मा की इकलौती मूर्ति भी है।

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