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राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ पदयात्रा विरोधाभासों से भरी, जानिए क्या है कमजोर कड़ियां

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भले ही ‘भारत जोड़ो’ यात्रा पर हैं, परंतु उनके नारे से विचार तत्व नदारद है। पूरी पदयात्रा कांग्रेस की प्रचार टीम द्वारा जारी की जा रही तस्वीरों के आसपास सिमटती नजर आ रही है। तस्वीरों के सहारे नेहरू-इंदिरा परिवार के वारिसों का विराट व्यक्तित्व गढ़ने का यह कोई पहला प्रयास नहीं है। ऐसे प्रयास पहले भी होते रहे हैं। मसलन तस्वीरों का सहारा लेकर प्रियंका गांधी वाड्रा की नाक उनकी दादी इंदिरा गांधी जैसा होने का प्रचार किया जाता रहा है।

‘परिवार बनाम पार्टी’

राहुल गांधी को राजीव गांधी जैसा दिखाने की कोशिशें भी कांग्रेस द्वारा की जाती रही हैं। ये सभी प्रचार के उपकरण हैं। इनसे विचार का धरातल नहीं तैयार होता। यह सच है कि मोदी युग के उभार के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर हुई है, लेकिन अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए कोई गंभीर प्रयास कांग्रेस की तरफ से होते नहीं दिखाई दिए हैं। कांग्रेस में नेतृत्व का संकट इतना गहरा हो गया है और भ्रामक स्थिति में पहुंच चुका है कि पार्टी अपना अध्यक्ष तक व्यवस्थित रूप से नहीं चुन पा रही है। अध्यक्ष का सवाल आते ही ‘परिवार बनाम पार्टी’ की बहस शुरू हो जाती है। हालांकि सच्चाई यह है कि गांधी उपनाम की आभा से बाहर कांग्रेस निकल ही नहीं पा रही। यह संकट इसलिए अब ज्यादा मुखर हो गया है, क्योंकि वर्तमान की राजनीति में वंशवाद की जड़ों पर चोट हुई है। राजनीति में वंशवाद अब जनभावना के लिहाज से भी अनुकूल नहीं रह गया है।

भारत का लोकतंत्र जैसे-जैसे परिपक्व हो रहा है, वंशवादी राजनीति की जड़ें उतनी ही कमजोर हो रही हैं। विरासत से मिली सियासत पर दूसरी पीढ़ी के दावों को अपने दल में चुनौती भी मिल रही है। इसी का परिणाम है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में वर्तमान नेतृत्व को लेकर असंतोष चरम पर है। एक के बाद एक नेताओं का कांग्रेस से मोह भंग होता जा रहा है। वे पार्टी छोड़ रहे हैं। फलत: ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस आंतरिक संवादहीनता के संकट से भी जूझ रही है।

संवादहीनता

अगर गौर करें तो जितने भी पुराने कांग्रेसियों ने अब तक कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाई है, लगभग सभी के स्वर एक जैसे हैं। सभी ने नेतृत्व द्वारा संवादहीनता के सवाल को जरूर रेखांकित किया है। ऐसे में यह कहना उचित लगता है कि आज की कांग्रेस को भारत जोड़ो से ज्यादा ‘कांग्रेस जोड़ो’ पर काम करने की आवश्यकता है।

यह विचारधारा से जुड़ा सवाल है, जिस पर कांग्रेस अथवा गांधी परिवार मुंह चुराकर नहीं भाग सकते। हालांकि अपनी पदयात्रा में राहुल गांधी कांग्रेस से जुड़े इन सवालों पर कोई संवाद करेंगे, इसे लेकर संशय है। आम भावना के अनुकूल नहीं नारा : राहुल गांधी की पदयात्रा की बुनियाद में ही गलती है। पदयात्रा का नाम ‘भारत जोड़ो’ की जगह ‘भारत से संवाद’ यात्रा होता तो एक विपक्षी दल की भूमिका के रूप में यह ज्यादा सटीक होती। ‘भारत जोड़ो’ का नारा देश की आम भावना के अनुकूल नहीं है, क्योंकि इससे यह संशय पैदा होता है कि मानो देश टूट रहा है! जबकि यह यथार्थ के धरातल पर सत्य के करीब नहीं है। यह काल्पनिकता के आदर्शलोक में गढ़ा हुआ नारा ज्यादा प्रतीत होता है।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि स्वतंत्र भारत में टूट या विभाजन केवल एक बार हुआ है। कांग्रेस सत्ता में थी। जवाहरलाल नेहरू अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री थे। महात्मा गांधी विभाजन के पूर्णतया विरुद्ध थे। इन सबके बावजूद देश टूट गया। लाखों-हजारों लोग बेघर हो गए। दंगों के दंश में देश जलता रहा। यह वह समय था जब वाकई में भारत टूट रहा था और इसे जोड़ने की जरूरत थी। उस समय ‘भारत जोड़ो’ की बात महात्मा गांधी कर रहे थे और ‘भारत बांटो’ के प्रस्ताव को नेहरू की अगुवाई में अंतरिम कांग्रेस सरकार ने स्वीकार कर लिया।

‘भारत जोड़ो’ पदयात्रा लेकर निकले राहुल गांधी क्या इस तथ्य से अवगत नहीं हैं? क्या उन्हें नहीं लगता कि जब महात्मा गांधी ‘भारत जोड़ो’ की वकालत कर रहे थे, तब राहुल गांधी के परनाना पंडित नेहरू ‘भारत बांटो’ के प्रस्ताव को स्वीकार कर रहे थे। अत: राहुल गांधी अपने अतीत के इस सवाल पर जवाब दिए बगैर अपनी पदयात्रा से न्याय कैसे कर पाएंगे? अपनी पदयात्रा शुरू करते हुए राहुल गांधी और कांग्रेस भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमले कर रहे हैं।

वह ऐसा बताने का प्रयास कर रहे हैं कि इन दोनों संगठनों की सोच नफरत और विभाजन वाली है। हालांकि इसका कोई वैचारिक आधार उनके पास नहीं है। इससे कांग्रेस की भूमिका पर ही अनेक सवाल खड़े होने लगते हैं। जिस केरल (वैसे यह यात्रा तमिलनाडु के कन्याकुमारी से आरंभ हुई जो केरल की सीमा से बिल्कुल सटा हुआ है और यात्रा शुरू होने के महज एकाध दिन के बाद ही यह केरल में प्रवेश कर गई) से राहुल गांधी ने अपनी ‘भारत जोड़ो’ पदयात्रा की शुरुआत की है, उसी केरल में कांग्रेस वहां की सांप्रदायिक पार्टी मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ती रही है। देश की स्वतंत्रता के पहले मुस्लिम लीग ही वह संगठन था, जिसने विभाजन की मांग शुरू की थी। मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग भी की थी। मुस्लिम लीग की मांग पर ही भारत विभाजन का दंश देश को झेलना पड़ा था।

राहुल गांधी की विचारहीनता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि वे ‘भारत जोड़ो’ पदयात्रा की शुरुआत जिस राज्य से कर रहे हैं, उसी राज्य में उनका गठजोड़ ‘भारत तोड़ो’ वाली विचारधारा का पोषण करने वाले दलों के साथ है। यहां तक कि अनेक ऐसे संगठन जो गैर-राजनीतिक हैं, किंतु समय-समय पर कांग्रेस को सार्वजनिक समर्थन देते रहते हैं, उनके विचारों में भी भारत को विभाजित रूप में देखने की बू आती है। इस पदयात्रा में जो चेहरे राहुल गांधी के समर्थन में दिखाई दे रहे हैं, उनमें से एक कन्हैया कुमार तो ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के पोस्टर ब्वाय रह चुके हैं। राहुल की पदयात्रा के एक और चेहरा इमरान प्रतापगढ़ी की रचनाओं में सांप्रदायिकता की ललकार खुलकर आती रही है। इस कारण से भी राहुल गांधी का ‘भारत जोड़ो’ अभियान विरोधाभाषों से भरा है।

राजनीति में यात्रा की परंपरा

राजनीति में पदयात्रा और रथयात्रा की पुरानी परंपरा है। चंद्रशेखर से लेकर लालकृष्ण आडवाणी तक ने यात्राओं के माध्यम से देश की जनता से संवाद स्थापित किया था। जनता के बीच अपने दल के विचारों को पहुंचाया था। यात्राओं के माध्यम से अपने दल के पक्ष में समर्थन हासिल किया था। यात्राएं अनेक जनांदोलनों के मूल में रही हैं। इतिहास में हुई अनेक राजनीतिक यात्राओं को देखें तो उसके मूल में विचारों की बुनियाद थी। राहुल गांधी जिस विचार संदेश को लेकर पदयात्रा कर रहे हैं उसमें दिशाहीनता है। उनका संदेश यथार्थ से परे है। इस पदयात्रा से किसी राजनीतिक बदलाव के संकेत नहीं मिल रहे। कांग्रेस के आंतरिक द्वंद को समाप्त करके आगे बढ़ने का फार्मूला भी निकलता नहीं दिख रहा।

कांग्रेस के रूठे नेताओं को मनाने और उनसे संवाद करने की कोशिश भी राहुल की पदयात्रा के एजेंडे में नहीं है। वर्ष 2024 के आम चुनावों के लिहाज से तो इस यात्रा में कुछ भी ऐसा नहीं दिख रहा, जिसे कांग्रेस के राजनीतिक प्रयास के रूप में देखा जाए। भाजपा विरोधी ताकतों को एक करने की कोशिश भी इस पदयात्रा के एजेंडे से नदारद है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि यह पदयात्रा राहुल गांधी किसलिए कर रहे हैं? इस यात्रा का राजनीतिक हासिल क्या है? कांग्रेस इससे क्या उम्मीद रख सकती है? ऐसे अनेक कारणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राहुल गांधी की पदयात्रा में न तो विचारों की स्पष्टता है और न ही कोई दूरगामी दिशा-दृष्टि ही दिखाई देती है। वे राजनीति में तो हैं, लेकिन राजनीतिक परिपक्वता की

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